उर में ज्वाला
ष्षान्त भाव को चूक न सम,
मेरे उर में सिमटी ज्वाला ।
में अमृत भी छक सकता हूॅं ।
पी सकता हूॅं विप का प्याला ।।
चला बहुत हूॅं कंटक पय में ,
किसे दिखाया पग का छाला ।।
मैंने स्वयं तिमिर पीकर के ,
अपने पय में किया उजाला खोज लिया खुदा मंदिर में ,
मस्जिद देखा षिव मतवाला ।
सबके उर में उसको देखा ,
एक जगत का जो रखवाला ।।
तूफानों से लडा बहुत में ,
हुआ नहीं पर कभी विहाला ।
वो रस मैंने चखा सदा ही ,
जिस रस से सब हुए निहाला ।।
भाग्य कपाट कब खुले मिले थे ,
अपने हाथों खोला ताला ।
मैं उस पथ से अमृत लाया ,
जिस पथ पर थी मधुषाला ।।
भ्रमित करता सेमल छोडा ,
मैंने उर में सत को पाला ।
जब भी आकर क्षुधा घेरती ,
तप के बल से उसे निकाला ।।
यूॅं तो ष्षान्त सागर दिखता हूॅं ,
उर में रखता हूॅं प्रवाला ।
मैं अमृत भी छक सकता हूॅं ।
पी सकता हूॅं विष का प्याला ।।
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