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माहताब

माहताब
वो हॅंसते हैं तो लगता है हॅंसता हुआ गुलाब,
चर्चा है चमन में कि हॅंसी का नहीं जबाब।
दिल ले गये मेरा इसका किसे मलाल,
सुकू है खिल गया है मेरा अमावस में माहताब।
मैं तो मॉंगता हू मालिक से यही दुआ,
सलामत रहे वो और महकता रहे षबाब,
हमसे गिला उन्हैं कि हम खत देते नहीं कभी,
हमको ये षिकायत है कि वो देते नहीं जबाब।
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अपनी बात

अपनी बात
मॉं सरस्वती के प्रिय उपासकों
एवं सुधी पाठकों को मेरा नमन ।
मैं भी ब्लॉगर्स की सूची में मॉं के
एक उपासक के रूप में अपनी
उपस्थिति दर्ज कराने का साहस इसलिए
कर पा रहा हू कि मुझे आषा ही नहीं
आपके सहयोग की प्राप्ति का पूर्ण भरोसा है । आपके सुझाव मुझे अपनी रचनाऐं परिष्कृत करने में महती सहयोग
प्रदान करेंगे इस आषा के साथ आपके विचारों की प्रतिक्षा में......

डॉवविद्यासागर कापडी

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उर में ज्वाला

उर में ज्वाला
ष्षान्त भाव को चूक न सम,
मेरे उर में सिमटी ज्वाला ।
में अमृत भी छक सकता हूॅं ।
पी सकता हूॅं विप का प्याला ।।


चला बहुत हूॅं कंटक पय में ,
किसे दिखाया पग का छाला ।।
मैंने स्वयं तिमिर पीकर के ,
अपने पय में किया उजाला खोज लिया खुदा मंदिर में ,
मस्जिद देखा षिव मतवाला ।
सबके उर में उसको देखा ,
एक जगत का जो रखवाला ।।


तूफानों से लडा बहुत में ,
हुआ नहीं पर कभी विहाला ।
वो रस मैंने चखा सदा ही ,
जिस रस से सब हुए निहाला ।।
भाग्य कपाट कब खुले मिले थे ,
अपने हाथों खोला ताला ।
मैं उस पथ से अमृत लाया ,
जिस पथ पर थी मधुषाला ।।

भ्रमित करता सेमल छोडा ,
मैंने उर में सत को पाला ।
जब भी आकर क्षुधा घेरती ,
तप के बल से उसे निकाला ।।
यूॅं तो ष्षान्त सागर दिखता हूॅं ,
उर में रखता हूॅं प्रवाला ।
मैं अमृत भी छक सकता हूॅं ।
पी सकता हूॅं विष का प्याला ।।

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इधर आइए,

चाहिए ऑंख नम तो इधर आइए,
चाहिए गर दुखन तो इधर आइए।
फूल दे ना सकूॅंगा तुम्हें उम्रभर,
चहिए गर चुभन तो इधर आइए ।
चॉंदनी है नहीं है तपिष ही तपिष ,
चाहिए गर जलन तो इधर आइए ।
हॅंसी है नहीं है हॅंसी का वहम ,
चाहिए गर वहम तो इधर आइए ।

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"वर दे!" (डॉ. विद्या सागर कापड़ी)



   
  वर दे ।      
वर दे..........

  वर दे वर दे मातु सरस्वती ।
    वर दे...........

श्वेत वसन सुरमय वीणा कर ,
      तिमिरपुंज हर हे ज्योतिर्मय ।
पग पर शूल बनें बाधा जब ,
       सुरभ सुमन कर दे।
                     वर दे ..........।
दंभ कपट से दूर रहे तन ,
       पल.पल 
श्वेत धवल सा हो मन ।
ज्ञानहीनता की तलछट को ,
       हे हंसवाहिनी हर दे ।
                     वर दे........ ।
अधरों से पुष्प प्रस्फुटित हो ,
        कर से नित नव काब्य रचित हो ।
रस छन्दों से सींचित करके,
       काब्यभाव भर दे ।
                वर दे.......






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